मैं क्या जानू कृष्ण को, वो तो है कण कण में। मैं क्या समझू कृष्ण को वो तो है हर विचारों में।। मैं कैसे पाऊ कृष्ण को वो तो है मेरे ही अंदर। मैं कैसे देखूं कृष्ण को वो हैं मेरी ही आंखों में।। मैं कैसे पुकारू कृष्ण को, वो तो है स्वयं ब्रह्मनाद है। मैं कैसे ध्याऊँ कृष्ण को वो तो खुद ध्यान देवे भक्तों पर।। मैं क्या भोग लगाऊँ कृष्ण को, हर सांस ही तो उसका प्रसाद है। मैं क्या लिखूं कृष्ण की महिमा ये सारा जग ही उसकी माया है।। लेखक - यशवंत पुरोहित